Frog Temple ,Oel (Kheri)

मंडूक तंत्र और श्री यंत्र पर बना मेंढक मंदिर

कस्बा ओयल के मोहल्ला शिवाला में स्थित मेंढक मंदिर मंडूक तंत्र और श्रीयंत्र पर बना हुआ है। इस मंदिर की पूरे देश में अलग छाप और पहचान है। यहां प्रतिदिन कस्बे के साथ आसपास के गांवों से लेकर शहरों के लोग पूजन-अर्चन के लिए आते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के महीने में यहां आस्था का सैलाब उमड़ता है।लखीमपुर शहर से 12 किलोमीटर दूर स्थित मेंढक मंदिर पहचान अलग है। यह मंदिर काफी रोचक है। पूरा मंदिर मंडूक तंत्र और श्री यंत्र पर बना हुआ है। मेढ़क मंदिर में स्थापित नंदी जी की मूर्ति खड़ी हुई है। जिसके लिए इस मंदिर की पूरे देश में अलग पहचान है। मंदिर का निर्माण करीब 230 वर्ष से भी अधिक पहले हुआ था। इसका निर्माण तत्कालीन ओयल स्टेट के राजा बख्श सिंह ने करवाया था।

बताया जाता है कि उस समय राजा ने युद्ध में जीते हुए धन के सदुपयोग और राज्य में सुख शांति व समृद्धि के लिए इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। यह भी कहा जाता है कि उस वक्त अकाल से बचने के लिए किसी तांत्रिकों की सलाह के बाद इसका निर्माण करवाया गया था। यह मंदिर अपनी ऐतिहासिक व प्राचीनता के लिए जाना जाता है।

पूरा शिव मंदिर एक विशालकाय मेंढ़क की पीठ पर बना है। पहले नीचे एक मगरमच्छ के मुंह में मछली बनी है, फिर मेंढक और उसके ऊपर चारों वेद रुपी चार सीढ़ियां, इसके पश्चात आठ पंखुडियों वाला कमल पुष्प व उसके ऊपर अष्टकोणीय तांत्रिक पूजन जंत्र बना है। मंदिर के चारों ओर चार गुंबद भी बने हैं। मंदिर के मुख्य द्वार के पास जमीन से करीब 50 फीट ऊपर एक कुआं बना है, जिसमें पानी जमीन के स्तर से भी ऊपर उपलब्ध रहता है, जो श्रद्धालुओं को आर्श्चचकित करता है। वहीं मंदिर के अन्दर एक विशाल श्वेत शिला के अरघे पर नर्मदेश्वर महादेव विराजमान हैं। पास ही एक विशालकाय नंदी महाराज की भी मूर्ति स्थापित है। मंदिर के चारों ओर कई देवी देवताओं व भक्तजनों की साधनाएं करती मूर्तियां भी स्थापित हैं। वहीं मंदिर व चारों गुम्बदों में मनोरम कलाकृतियां भी बनी हैं। मंदिर के शीर्ष पर स्थापित कलश पर अष्टधातु निर्मित चक्र के बीच में नटराज की मूर्ति विराज मान है। मान्यता है कि यह पहले के समय में सूर्य के साथ ही धूर्णनन करता था किन्तु अब छतिग्रस्त है।

मंदिर के बाहरी दीवारों पर शव साधना करती उकेरी मूर्तियां इसे तांत्रकि मंदिर बताती हैं। ओयल शैव संप्रदाय का प्रमुख केंद्र था। यहां के शासक भगवान शिव के उपासक थे। तंत्र पर आधारित इस मंदिर की वास्तु संरचना अपनी विशेष शैली के कारण लोगों का मनमोह लेती है।

ओयल का यह मेंढक मंदिर अड़तीस मीटर लम्बाई व पच्चीस मीटर की चौड़ाई में निर्मित एक विशालकाय मेढक की पीठ पर बना हुआ है। इस मेंढक का मुख तथा अगले दोनों पैर उत्तर दिशा में हैं तथा पिछले पैर दक्षिण दिशा में। मेंढक का मुख दो मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा तथा एक मीटर ऊंचा है। इसके पीछे का भाग दो मीटर लम्बा तथा डेढ़ मीटर चौड़ा है। यह विशाल मंडूक आकृति मेंढक के बैठने की स्वाभविक मुद्रा में बनायी गयी है। मेंढक की उभरी हुई गोलाकार आंखें तथा मुख का भाग अत्यंत जीवन्त प्रतीत होता है। मेढक की आकृति के ऊपर लगभग सौ मीटर की वर्गाकार जगती में मुख्य मंदिर का निर्माण श्री यंत्र के अनुसार किया गया है। मंदिर के निर्माण में लखौरी ईंटों और चूने के गारे का प्रयोग किया गया है। मंदिर तक जाने के लिए चारो तरफ पांच सीढिय़ां बनी हैं। सबसे ऊपर मंदिर का गुम्बदाकार शिखर है तथा मुख्य मंदिर के चारो कोनों पर चार अन्य छोटे मंदिर निर्मित हैं तथा मंदिर के चारो ओर लगभग 150 मीटर वर्गाकार में चहारदीवारी निर्मित है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में सहस्त्र कमल दलों से अलंकृत सफेद संगमरमर की दीर्घा है। मुख्य मंदिर की बाहरी दीवारों तथा चारो कोनों पर बने लघु मंदिरों की दीवारों पर तंत्र साधना में निरत आकृतियां उत्कीर्ण हैं। इनमें खड्ग धारिणी देवी चामुण्डा, मोरनी पर आरूढ़ चार शीश वाले देवता तथा बलि के दृश्य तांत्रिक अनुष्ठान की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते हैं। यूं तो देश के अनेक स्थान पर तंत्रवाद से संबंधित मंदिर एवं प्रतिमाएं पाई जाती हैं जिनमें चौसठ योगिनियों के मंदिर प्रमुख हैं; किन्तु “मांडूक तंत्र” पर आधारित यह मेंढक मंदिर अपने आप में अद्वितीय है। जहां एक ओर मंदिर की बाहरी दीवारों में बनी विशालकाय ताखों में तांत्रिक क्रियाओं वाली मूर्तियां आकर्षण का केन्द्र हैं वहीं मंदिर की भीतरी दीवारों को दांतेदार मेहराबों, पद्म पंखुडिय़ों, सुंदर बेल-बूटों व पुष्प पत्र के अलंकरणों से सुसज्जित किया गया है। मंदिर के उत्तर में दो किलोमीटर लम्बा और एक किलोमीटर चौड़ा एक कुण्ड है जो संभवत: भक्तजन के स्नान के लिए बनाया गया होगा।

 यहां के शासक भगवान शिव के अनन्य उपासक थे। इस बात का पुख्ता प्रमाण है मंडूक यंत्र पर आधारित यह प्राचीन शिव मंदिर। इस मंदिर के निर्माण के पीछे दो सौ साल पुरानी एक रोचक जनश्रुति समूचे क्षेत्र में प्रचलित है। एक जनश्रुति के अनुसार एक बार इस राज्य में अकाल पड़ा। ओयल राज्य के प्रजा पालक राजा बख्श सिंह इससे बहुत दुखी थे और निवारण का उपाय तलाश रहे थे। तभी एक रात स्वप्न में उन्हें एक विशाल मेढक ने दर्शन देकर वर्षा के लिए मंडूक यंत्र पर आधारित एक मंदिर बनाने की प्रेरणा दी थी। इस स्वप्न को देखने के बाद राजा की उद्विग्नता शांत हुई इस स्वप्न को देखने के बाद राजा की उद्विग्नता शांत हुई और उन्होंने कपिला के महान तंत्राचार्यों और वाराणसी के विद्वानों की देखरेख में शुरू कराया। उनके निधन के उपरांत इस मंदिर का निर्माण कार्य राजा बख्श सिंह के उत्तराधिकारी राजा अनिरुद्ध सिंह ने 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में पूर्ण कराया था। जिला गजेटियर में दर्ज उल्लेखों के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में शुरू हुआ था। इतिहासकारों की मानें तो 13-14 वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक यह क्षेत्र चाहमान शासकों के आधीन था। भले ही समय के थपेड़ों में मंदिर की पच्चीकारी, नक्काशी और रंग रोगन क्षरित होता जा रहा हो; बावजूद इसके, यह अनोखा मंदिर अब भी बेहद आकर्षक है।